Thursday 7 August 2008

साहस-१

उद्वेलित भावों के भँवर में, 
जब फँस जाए तेरी नौका 
अथक तेरे प्रयास बाद भी, 
फिसल जाए हाथों से मौका 
थामें साहस की पतवार, 
करनी पार यह झील है 
क्या नहीं मिल पाया उसे 
जो रहा प्रयत्नशील है 
रौंद समय दे तेरी खुशियां, 
जब तेरे विश्वास को 
बहा सुनामी ले जाएं सब, 
 तेरे हर प्रयास को 
साहस का इतिहास है साक्षी, 
हुआ हर चक्रव्युह खील है 
क्या नहीं मिल पाया उसे 
जो रहा प्रयत्नशील है 
विपदाओं में, बाधाओं में, 
दुख में भी अट्टाहस कर 
दूर नहीं है मन्जिल बन्धु, 
एक बार तो साहस कर 
जैसे इस खुले गगन में, 
आखेटक विचरती चील है 
क्या नहीं मिल पाया उसे 
जो रहा प्रयत्नशील है 
तू अपने दुष्कृत्यों का, 
फिर मन से अनुताप कर 
सबल - सक्षम कदमों से बढा चल, 
लक्ष्य का ही जाप कर 
ऊँचे पर्वत लाँघ कर, 
उद्यानों की सैर कर 
अग्नि में खुद को जला-तपा कर, 
गहरे जलधि तैर कर 
बढता चल तू अग्नि पथ पर, 
मन्जिल कुछ ही मील है 
क्या नहीं मिल पाया उसे 
जो रहा प्रयत्नशील है

Wednesday 6 August 2008

एहसास

वह बरसात की रात थी

पर कुछ खास बात थी

यह सर्दियों की शुरुआत थी

मेरा भी मन मचला

राजा सा उठ खडा हुआ

और प्रजा देखने निकल पडा

इस प्रजातन्त्र भारत की

निकला ही था कि एक नौजवान उदास था

कुछ चिन्तित और हताश था

चौंक उठा जब पूछ कारण

मैं हो गया उसके पास खडा

आँखों से आँसू निकल आए

मुझसे लिपट वह रो पडा

और गलती का एहसास कर

दूर हुआ एक कदम॥

उसने बताना चाहा:

पर गली के नुक्कड वाले मन्दिर से

सत्संग की आवाज आ रही थी

जैसे उसके रुँधे हुए गले की आवाज को

दबाना चाह रही थी

मैं फिर से उसके पास हुआ

और मैंने महसूस किया कि

उसे अपनेपन का एहसास हुआ

आँसू पोंछते हुए बोला

बाबूजी, शराबी के घर पैदा हआ

तभी तो यह हाल है

और सर्दियाँ शुरु हो आई है.

शायद मेरा आखिरी साल है

मैंने समझाने का व्यर्थ प्रयास किया

भई- सर्दियों में न बिजली का झमेला है

और मच्छरों का भी लफडा नही है

वह फिर सुबका

और "और" नम्रता से बोला

बाबूजी, सर्दियों का एक भी कपडा नहीं है

मैं जड हो गया

चेताया दोबारा मन्दिर से आती तेज आवाज ने

उसमें किसी सेठ का नाम लिया था

जिसने मन्दिर के नाम १ लाख दान दिया था

मैं असमंजस में था

और साथ में लाचार

उस गरीब और गरीबी पर

मैंने करते हुए विचार

अपनी जेब में हाथ डाला

एक सौ का फटा हुआ नोट निकाला

बेजान मूर्तियों को दान देने वाले का नाम

मेरे कानों में गूँज रहा था

जैसे गरीबी से छुटकारा पाने का रास्ता

मुझसे ही पूछ रहा था

रुदन करता ह्रदय, बोझिल मऩ

मैंने घर का रस्ता नाप लिया था

इतना व्यथित हो गया था मैं

जैसे मैंने ही कोई पाप किया था

पर बरसात की उस रात में

यह इत्तफाक इतना ख़ास हुआ था

गरीबी में लोग ऋतुओं से भी डरते हैं

उस रात मुझे एहसास हुआ था